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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 22 मार्च 2024

अनूप श्रीवास्तव

A person with glasses and a blue shirt

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स बार यार। होली क्या आ गयी।  लगा, कम्बख्त चुनावी होली आ गयी। रंग खरीदने के लिए भले ही दुकानों और बाजारों में सन्नाटा पसरा पड़ा है पर रंग बदलने के लिए लोग गिरगिटों के यहां जी हुजूरी करने के लिए  भारी संख्या में पहुंचने लगे है। गिरगिट अपने दरवाजे पर इतनी लम्बी लाइन देखकर इसलिए परेशान है कि उसकी रंग बदलने की कला  इस चुनावी होली के चक्कर में इतनी सार्वजनिक न हो जाये कि आने वाले वर्षों में गिरगिटों को इन रंगबाजों से रंग बदलना न सीखना पड़ जाये और वे अल्पसंख्यक होकर  रह जाएं ।

 

भले ही रंग बदलने के मामले में गिरगिट आत्मनिर्भर है पर इस उपलब्धि से क्या हासिल हो पाता है उसे ? बात तो तब है जब वह खुद अपना रंग बदले ही, दूसरों के भी रंग बदल दे। औरों का भी रंग उड़ा दे। उनका रंग छीन ले ।अपना रंग उन पर थोप दे। यह क्वालिटी गिरगिट में नहीं है। इसीलिए  चुप हैं।

 गिरगिट चुनाव की आहट पर रंग बदलने के लिये अपना स्टाक बढ़ाने की तैयारी कर रहे हैं। इस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर रंगबाजी की तैयारियां चल रही हैं।

राजनीतिक दल अपने रंगों के साथ दूसरों का रंग उड़ाकर ऐसा काकटेल बनाने के फेर  में है कि जनता दो घंटे में झूम जाये। पब्लिक भी सोंचे कि क्या काम्बिनेशन है रंगों का ? क्या काकटेल है? यूँ लगे जैसे दो बूंद जिन्दगी की चुनावी नशा उतरते ही काकटेलीय खुमार ऐसे गायब हो जायेगा कि उसकी टेल यानी पूंछ कहीं भी नजर नहीं आएगी। होली की चुनावी बाजार में तरह-तरह की पिचकारियों निकल आई है पर रंग अभी भी पुराने ही हैं।

रंग पुराने क्यों न हो ? पिछले पचहत्तर वर्ष रंगबाजी में ही चले गये। कई दशाब्दियों से नया रंग आविष्कार में आया ही नहीं। कुछ रंग दूसरे रंगों के साथ एडजस्टमेन्ट के गठबंधन का शिकार हो गया ।

 यही नहीं ,कुछ रंगों को अपनी पिचकारी से एलर्जी हो रही है इसलिये वे अपनी पिचकारी छोड़कर बाहर आ रहे हैं।  पिचकारियों को भी अपनी कमजोरी का एहसास हो गया है ।इस कमजोरी को भांप कर छुटभइया ब्रांड पिचकारियों अपने रंग को गाढ़ा करते हुए रंग बदल रही है।

 

छोटी पिचकारियां अपनी हैसियत बढ़ाने के लिए तमाम रंग की जुगाड़ में लगी हुई है और अपने रवैये से यह भी जता रही है कि उन्हें बड़ी पिचकारियों से परहेज है। उसके साथ ही कुछ मिलाकर रंगबाजी का राष्ट्रीय स्तर पर एडजस्टमेट की कोशिश जोरों पर है।अपना हाथ जगन्नाथ मानने वाली पिचकारी समझ नहीं पा रही है कि वह अपने सुखे रंगों से चुनावी होली में कैसे मनचाहा रंग भरें कैसे बिना रंगों के चुनावी होली खेले ।

कमल कीचड़ में ही खिलता है की मूल भावना पर चलते हुए सत्तापाटों रंगों के बजाय कीचड़ उत्पादन पर विश्वास कर रही है। वह रंगों के बजाय कीचड़ बनाने और कीचड़ उछाले में लगी है ताकि ज्यादा से ज्यादा कमल खिल सके और उसका 'साहबयापा' सब पर भारी पड़ जाये।

रंगों से लदी साइकिल पंजे की गिरफ्त में छटपटा रही है और अब वह तीसरी और चौथी पिचकारियों के घटक में जाने की फिराक में है। उधर पंजा भी लालटेन लेकर अपने मतलब के रंग तलाश कर रहा है। हाथी की सूड़ में सर्वजन हिताय के रंग हैं और वह जता रही है कि जिस पर उसका रंग पडेगा, उसका ही हित होगा। ऐसी सोशल इंजीनियरिंग वाली पिचकारी इस बार भी कितना कमाल दिखायेगी वह फाइनली फाइनल में पता चल जायेगा। वैसे झाडू पंजे वाली पिचकारियां भी बड़े-बड़ों का रंग ढीला करने में लगी हुई हैं। कुल मिलाकर भाई-चारे की भावना वाली होली आयेगी और निकल जायेगी पर असली रंग चुनावी होली का ही चढ़ेगा। इस बार का रंग या तो चढ़े ही नहीं और  चढ़े तो पांच साल तक उतरे नहीं। इसलिये सावधानी से रंग खेलिये और एलर्ट होकर अपने ऊपर रंग डलवाइये। इस साल पांच साला होली में इन रंगों का लाइव प्रसारण है और इसमें रीटेक की संभावना नहीं के बराबर है। किसी रंग की कम रंग समझने या बदरंग को रंग समझने की भूल मत करियेगा।

लोगों को भ्रम था इस बार चुनावी होली में नई पिचकारियां देखने को मिलेंगी लेकिन जोड़ तोड़ की होली में नई पिचकारियों पर रिस्क लेने की किसी की हिम्मत नही पड़ रही है । यही नहीं,पास पड़ोस से आई पिचकारियों  की भी इस माहौल में बन आई है। लेकिन चुनावी धमार कहीं भी दिख नही रहा है। चुनावी मुद्दा भी नही बन पास रहा है। फिर भी सभी चुनावी भागदौड़ में लगे है।

फिलहाल होली मुबारक! (शब्द 755)

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